२५ ,सितंबर १९५७

 

     ''एक नवीन मानवजातिका हमारे लिये अर्थ है मनोमय प्राणियोंकी एक ऐसी जाति था संततिका आविर्भाव या विकास जिसका मानसिक तत्व अज्ञानमें रहनेवाला ठीक वही मन नहीं होगा जो ज्ञानकी तलाश करता है, पर अपने ज्ञानकी स्थिति- मे भी अज्ञानसे बंधा होता है, जो ज्योतिकी खोज तो करता है पर उसका स्वाभाविक स्वामी नहीं होता, ज्योतिकी ओर खुला तो होता है पर ज्योतिके अंदर निवास नहीं करता, जो अभीतक पूर्णताप्राप्त यंत्र नहीं है, सत्यसे सचेतन और अज्ञानसे मुक्त नहीं है । इसके स्थानपर वह जाति पहलेसे ही उस वस्तु- पर अधिकार पा चुकी होगी जिसे ज्योतिर्मय मन कहा जा सकता है, ऐसा मन जो सत्यमें निवास करनेमें समर्थ होगा, सत्यके विषयमें सचेतन होने और अपने जीवनमें अप्रत्यक्षकी जगह प्रत्यक्ष ज्ञानको व्यक्त करनेमें समर्थ होगा । उसकी मनः शक्ति ज्योतिका यंत्र होगी और अब अज्ञानका यंत्र नहीं रहेगी । अपनी उच्चतम अवस्थामें वह अतिमानसमें प्रवेश करनेमें समर्थ होगी, और उस नयी जगत्मेंसे ही अतिमानवोंकी नयी जाति तैयार की जायगी जो पार्थिव प्रकृतिके बिकासके अग्रणीके रूपमें आविर्भूत होंगे ।',

 

(अतिमानसिक अभिव्यक्ति)

 

 निश्चय ही यह वही चीज है जिसकी श्रीअरविन्द हमसे आशा करते थे और जिसकी उन्होंने एक ऐसे अतिमानवके रूपमें कल्पना की थी जो वर्तमान मानव और अतिमानवके बीच एक मध्यवर्ती सत्ता होगी, उस अतिमानवके

 

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जो अतिमानसिक तरीकेसे निर्मित होगा, जो पतुकी श्रेणीमें बिलकुल न रहेगा और जो पशुजीवन-सम्बन्धी समस्त आवश्यकताओंसे मुक्त होगा ।

 

      हम लोग, जैसे अब हैं, सामान्य पशु-प्रणालीसे उत्पल हुए हैं और परिणामत यदि हम अपने-आपको रूपान्तरित कर भी लें तब भी हममें पशुउद्गमका कुछ-न-कुछ अंश बचा ही रहेगा । पर श्रीअरविन्दकी दृष्टिका अतिमानव साधारण पशु-पद्धतिसे जन्म हर्गिज नही' लेगा, बल्कि वह सीधा, एक ऐसी प्रक्रियाद्वारा निर्मित होगा जो अभीतक हमें गुह्य प्रतीत होती हो पर जो शक्तियों और उपादानका एक ऐसा प्रयोग होगी जिससे शरीर साधारण पशु-विधानके अनुसार की गयी रचना न होकर 'भौतिकीकरण होगा, न कि साधारण पशु-विधानके अनुसार सृष्ट एक रचना ।

 

       यह बिलकुल स्पष्ट है कि मध्यवर्ती जीवोंका होना जरूरी है ओर यह भी कि इन्हीं मध्यवर्ती जीवोंको ही उन साधनोंको खोजना होगा जो अति- मानसके जीवको रूपायित कर सकें । इसमें सन्देह नही कि श्रीअरविन्दने जब यह लिखा था तो उनका विश्वास था कि इसी कार्यको हमें करना है ।

 

     मैं सोचती हू - मैं जानती हू -- कि अब यह सुनिश्चित है कि हम उस चीजके। पा लेंगे जिसकी उन्होंनें हमसे आशा की है । अब यह आशा- मात्र नहीं रही, बल्कि एक निश्चयता हो गयी है । अब केवल समयकी बात हैं जो इस उपलब्धिके लिये जरूरी है और वह हमारे व्यक्तिगत प्रयत्न, हमारी एकाग्रता और हमारी सद्भावनाके... और उस महत्त्वकी अनुसार जो हम इम तथ्यको देते है कम या अधिक लम्बा होगा । अन्यमनस्क दर्शकको चीज़ें बहुत कुछ वैसी ही लग सकती है जैसी वे पहले थीं, पर जो देखना जानता है और बाह्य प्रतीतियोद्वारा भ्रान्त नहीं होता उसके लिये चीज़ें ठीक चल रही है !

 

        प्रत्येक अपना अधिकतम प्रयत्न करता चले तो शायद सबके नित्य पहले प्रत्यक्ष परिणामोंके दृष्टिगत होनेमें बहुत अधिक वर्षोंसे बितानेकी जरूरत न होगी ।

 

यह देखना तुम्हारा काम है कि यह कार्य तुम्हें संसारकी अन्य सब वस्तुओंसे अधिक रोचक लगता है या नहीं.. । एक समय होता हैं जब स्वयं शरीर अनुभव करने लगता है कि इसके समान, इस रूपांन्तरके समान संसारकी कोई चीज नहीं है जिसके लिये जीवन धारणा किया जाय, ऐसी कोई चीज नहीं जिसके लिये इतनी अभिरुचि हों सके जितनी रूपांन्तरके लिये तीव्र अभिरुचि । ऐसा प्रतीत होता है मानों शरीरके सब कोषाणु उस 'प्रकाश'के प्यासे है जो व्यक्त होना चाहता है, उसको पुकारते है,

उसमें एक गभीर आनन्द पाते है और 'विजय'के बारेमें सुनिश्चित है ।

 

      इसी अभीप्साको मैं तुम्हारे अन्दर संचारित करनेकी कोशिश कर रही h और तुम समझ जाओगे कि इस कार्यकी तुलनामें, 'प्रकाश'में रूपान्तरित होनेकी तुलनामें जीवनका ओर सब कुछ नीरस, निसार, निरर्थक और निकम्मा हैं ।

 

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